सरदार वल्लभभाई पटेल आधुनिक भारत के निर्माता थे जिस भारत को आज हम देख पा रहे
है वह सन् 1947 या स्वाधीनता के समय वैसा नहीं था। यह वह समय था जब भारत
अंग्रेजो से तो स्वाधीनता अर्जित कर रहा था पर कई देसी राजे रजवाड़े अब भी अपनी
प्रजा को स्वाधीनता देने के पक्ष में नहीं थे और न हीं भारतीय संघ में अपने
विलय को तैयार थे। स्वाधीनता के समय हमारी स्थिति तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के
मगध जैसी थी जिस पर कोई बाहरी आक्रमण करने की फ़िराक़ में था ऐसे समय में हमें
एक चाणक्य की आवश्यकता थी जो भारत को पुनः एक सूत्र में बाँधे।
देश की जनता बारदोली (1927-28) में सरदार पटेल की कर्मठता और देश के प्रति उनकी
निष्ठा एवं किसी भी परिस्थिति से लोहा लेते हुए उसके आगे नतमस्तक न होने वाली
उनकी दृष्टि से परिचित थी। इसलिए देश की प्रजा का भरोसा सरदार पटेल पर था।
भारतीय जनता वल्लभभाई पटेल को राष्ट्र की सरदारी देने की इच्छुक भी थी लेकिन
सरदार वल्लभभाई पटेल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से परे थे उनकी दृष्टि पद की
तरफ न होकर राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की ओर थी। उन्हें किसी भी पद की
लालसा कभी नहीं थी, वे हर पद और कद से ऊपर राष्ट्र को समझते थे और पद को
जिम्मेदारी एवं दायित्व के रूप में लेते थे। यही कारण है कि अपने जीवन के
अंतिम क्षणों में भी वे देश को एकीकृत करने की अपनी महत्ती योजना पर काम कर
रहे थे। स्वयं गाँधी जी भी खेड़ा और बारदोली सत्याग्रह में वल्लभभाई की
कर्तव्यनिष्ठा, कर्मठता, निडरता और राष्ट्र के प्रति उनके प्रेम को देख चुके
थे, वे उनकी क्षमताओं से परिचित थे। वे जानते थे कि सरदार वल्लभभाई पटेल अपने
काम को सिर्फ कर्मठता से ही नहीं बल्कि चतुराई और कूटनीति से अंजाम देना जानते
हैं। इसलिए भारतभूमि का प्रधानमंत्री भले ही जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया हो
पर असल में भारतभूमि को राष्ट्र के रूप में एकीकृत कर भारत के रूप में पहचान
दिलाने में तत्कालीन गृहमंत्री एवं उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की
ऐतिहासिक भूमिका है।
सिर्फ विचार कर देखिए सन् 1947 का भारत कैसा था? एक धड़ जिसके कई टुकड़े थे जो
उससे अलग होने को बेचैन थे। कल्पना मात्र से आत्मा काँप जाती है। जिस भारत को
आज हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने में गौरवांवित महसूस करते हैं, आप सोच
भी नहीं सकते कि अगर सरदार वल्लभभाई पटेल न होते तो इस देश का इतिहास क्या
होता। आइए जाने हमारे भारत देश की इस महान विभूति को जिसे राष्ट्र के मुख्य
पटल से हटाने की कोशिश तो बहुत की गई ताकि कुछ खोखले नाम मुख्य पटल पर आ सकें
पर जो लोगों के दिलो पर राज करता है जिसका वास राष्ट्र की जनता के हृदय में
होता है, उसे किसी पद, पुस्तक, ग्रंथ या इतिहास से हटाने या उसका कद छोटा करने
की हर कोशिश उल्टी ही पड़ती है।
लौह पुरुष सरदार वल्लभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 ई. में अपने ननिहाल
नडियाड में हुआ था। इनके पिता झवेरभाई पटेल राष्ट्रभक्त और समाजसेवी थे तथा
माँ आस्थावान और कुशल गृहिणी थी। बचपन से ही पढ़ाई में बेहद कुशाग्र और अपनी
तर्क शक्ति से अपने अध्यापकों को भी चकित करने वाले वल्लभभाई गाँधी जी के
संपर्क में सन् 1916-17 में आए। ध्यान देने वाली बात है कि भारत में गाँधी जी
का राजनीतिक जीवन भी इसी वर्ष के आसपास आरंभ होता है। एक अर्थ में महात्मा
गाँधी और सरदार वल्लभभाई पटेल दोनों का ही राजनीतिक जीवन साथ-साथ आरंभ होता
है। दोनों ही बैरिस्टर की शिक्षा विदेश में अर्जित करते हैं और दोनों ही एक ही
क्षेत्र गुजरात से संबंध रखते हैं। अगर इसे अतिशयोक्ति न माना जाए तो कहना
होगा कि देश की आज़ादी और विकास में गुजराती आधार स्तंभ की तरह काम करते हैं।
स्वाधीनता की इमारत इन्हीं आधार स्तंभों पर टिकी हुई हैं जिसमें समय के
साथ-साथ और स्तंभ भी खड़े होते चले गए।
बहरहाल इन दो महान विभूतियों की तुलना करने का एक मात्र लक्ष्य यह था कि इस
देश के लोकतंत्र और मानस को समझा जा सके। यह समझा जा सके कि भारत का मानस
त्वरित क्रिया प्रभाव से नहीं जन्मा है बल्कि हमने अपनी बुद्धि और कुशाग्रता
से दुश्मन के दाँत खट्टे करने की अदम्य शक्ति अर्जित की है। इस शक्ति के दर्शन
हमें स्वाधीनता के बाद मिली चुनौतियों से लड़ने और उन पर विजय पाने में होते
हैं। यकीन मानिए जितना ही कठिन काम स्वाधीनता को पाना था, स्वाधीनता मिलने के
बाद हुए विभाजित भारत को एक सूत्र में बाँधना वो भी बिना कोई रक्तपात किए और
अपना कोई संसाधन नष्ट किए, नाकों चने चबाने वाला दुष्कर कार्य था। एक ओर भारत
सैंकड़ों वर्षों की गुलामी और अथाह रक्तपात और संसाधनों को नष्ट करने के
उपरांत स्वाधीन हो सका वहीं, दूसरी ओर भारतभूमि को एकसूत्र में बांधने जैसे
नामुमकिन कार्य को भारत के शेर सरदार वल्लभभाई पटेल ने बिना किसी तरह के
रक्तपात के भारत को एक राष्ट्र के रूप में विश्वपटल पर पहचान दिलाई।
सही मायने में सरदार वल्लभभाई पटेल भारत में चाणक्य की भांति निस्वार्थ
राष्ट्रप्रेम से प्रेरित, बिना अपने स्वास्थ्य की चिंता किए लड़ने वाले एक
निष्ठावान, कर्मठ, देशरत्न, लौहपुरुष और निस्वार्थ नायक थे। इसलिए भारतीय
उन्हें अपना सरदार स्वीकारते हैं जिन्होंने भारतभूमि को सही मायने में भारत
बनाया। एक राष्ट्र को एक झंडे के नीचे लाने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका है।
स्वाधीनता से पहले के काम सिर्फ एक ख़ाका है उनकी ऐतिहासिक भूमिका उनके
उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री बनने के बाद शुरू होती है। सही मायने में यह
किसी तरह की भूमिका या प्रतिष्ठा नहीं बल्कि उस समय का सर्वाधिक काँटों भरा
दायित्व था। स्वयं नेहरू ने भी इस बात को संविधान सभा में स्वीकारा था और कहा
था कि "छः महीन पहले मैं भी नहीं कह सकता था कि आज जो सैकड़ों साल पुरानी
सामंतशाही उखड़ रही है वह इतनी आसानी से उखड़ जाएगी। इस टेढ़ी और कठिन स्थिति
से निपटने के विषय में हमारे ऊपर मेरे मित्र व सहयोगी उपप्रधानमंत्री (सरदार
पटेल) का आभार है। पाकिस्तान बनने के बाद भारत को विशाल भारत बनाने में सरदार
पटेल का योगदान इतिहास में सदा स्मरण किया जाएगा।" इस चुनौतीपूर्ण कार्य को
उन्होंने चुनौती नहीं बल्कि अवसर के रूप में लिया और भारत की आज़ादी के साथ ही
वे इस बिखरे भारत को एकीकृत भारत बनाने की अपनी योजना पर काम करने लगे।
भारतीय लोकतंत्र और देसी रियासतों का भारत में विलय
जिस समय भारत स्वाधीन हुआ उस वक्त भारत में पाँच सौ से ज्यादा छोटी बड़ी
रियासतें थी। ये सभी रियासतें अंग्रेजी राज के अंदर भी अपनी प्रजा की राजा बनी
हुईं थी। इनके राजसी ठाट-बाट से अंग्रेजो को भी कोई दिक्कत नहीं थी बस उन्हें
समय से कर मिलता रहता था और ये राजा अंग्रेजो के कहने पर अपनी प्रजा पर कर का
भार बढ़ाते रहते थे। इन छोटी रियासतों के राजाओं की मंशा थी कि भारत आजादी के
बाद भी उनकी रियासतों को उनके मातहत ही रखे। पर इसके कई संकट थे अंग्रेज जिस
रूप में भारत को अधर में छोड़े जा रहे थे, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार
रियासतों के शासकों पर निर्भर था कि वे भारत या पाकिस्तान किसमें अपना विलय
करें।
स्वाधीनता के तुरंत बाद जो दो सबसे दुष्कर कार्य थे उनमें पहला था भारत को इन
छोटे राजे-रजवाड़ो से मुक्त कर भारत का एकीकरण करना और दूसरा, आम चुनाव कराना।
पर पहले काम के बिना दूसरा संभव ही नहीं था। इसलिए बिना एकीकरण के लोकतंत्र की
संभावना भी खत्म होने का खतरा था। इसलिए भी हम सरदार वल्लभभाई पटेल को आधुनिक
भारत का निर्माता ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का निर्माता भी
मानते हैं। बहरहाल ज्यादातर रियासतें भारत के साथ विलय के पक्ष में आ गई। कुछ
रियासतें प्यार से और कुछ रियासते बाहरी आक्रमण से सुरक्षा को ध्यान में रखकर
भारत में अपने विलय के लिए तैयार हो गईं। जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर
रियासतों के विलय में सर्वाधिक अड़चन आई थी।
पटेल की राष्ट्रवादी भूमिका और चुनौतीपूर्ण रियासतों का विलय
स्वतंत्रता के समय भारत के अंदर तीन तरह के क्षेत्र थे। पहला, ब्रिटिश भारत
का क्षेत्र जो भारत के गवर्नर जनरल के सीधे नियंत्रण में थे। दूसरा, देशी
राज्य जिन्हें प्रिंसली स्टेट कहा जाता था। तीसरे, फ्रांस और पुर्तगाल के अधीन
(पांडिचेरी, गोवा, चंदन नगर आदि) क्षेत्र थे। रियासतों के एकीकरण का काम
स्वाधीनता से पहले ही आरंभ हो चुका था। 27 जून 1947 को माउंटबेटन ने सरदार पटेल
के नेतृत्व में राज्य विभाग का पुनर्गठन किया जिसके लिए सरदार पटेल ने
वी.पी.मेनन को अपने सलाहकार और सहयोगी के रूप में चुना जो पटेल की ही तरह बेहद
चतुर, कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी व्यक्ति थे। जल्द ही 5 जुलाई 1947 को सरदार
वल्लभभाई पटेल ने रियासतों को तीन शर्तों के साथ भारत में विलय का निमंत्रण
दिया जिसके अनुसार तमाम रियासतें की प्रतिरक्षा, संचार और विदेश नीति का
दायित्व भारत सरकार संभालेगी और राजस्व आदि उनके पास ही रहेंगे। इस निमंत्रण
और माउंटबेटन के संबोधन का असर यह रहा कि 15 अगस्त 1947 आते-आते लगभग सभी राजा
और नवाबों ने विलय की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। कुछ राज्य जैसे जूनागढ़,
हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर अलग राज्य के रूप में रहने का सपना पाल रहे थे, इन
पर पाकिस्तान की भी नज़र थी।
सरदार पटेल की कूटनीतिज्ञता : जूनागढ़ का विलय
अगर सरदार पटेल ने अपनी चतुराई और तुरंत निर्णय लेने की क्षमता न दिखाई होती
तो जूनागढ़ भारत के हाथ से निकल सकता था। सरदार पटेल की ऐतिहासिक भूमिका इसमें
भी निहित है कि वे अपनी दूरदर्शिता और कूटनीतिज्ञ चतुराई से भारतीय संघ को
मजबूती देने में विजयी रहे, कैसे उन्होंने जूनागढ़ जैसे राज्य का विलय कराया यह
जितना चुनौतीपूर्ण था उतना ही दिलचस्प।
जूनागढ़ पश्चिम भारत के सौराष्ट्र इलाके का एक बड़ा राज्य था। वहाँ की अधिकांश
जनता हिंदू थी। पर वहाँ का नवाब महावत खान था। जिन्ना और मुस्लिम लीग के
इशारों पर जूनागढ़ के दीवान अल्लाह बख्श को अपदस्थ करके बेनजीर भुट्टो के दादा
शाहनवाज़ भुट्टो को वहाँ का दीवान बनाया गया था। वहाँ के नवाब की जिन्ना के साथ
नज़दीकी भी जूनागढ़ को पाकिस्तान के साथ जाने में सुझा रही थी। परंतु पटेल
जानते थे कि अगर ऐसा हुआ तो जूनागढ़ की अधिकांश जनता के साथ धोखा होगा।
सांप्रदायिक दंगे होंगे जिसमें लाखों निर्दोष लोग मारे जाएंगे। हालांकि शुरु
में जिन्ना का जूनागढ़ को लेने का कोई खास इरादा नहीं था। जिन्ना संभवतः नेहरू
के साथ जूनागढ़ के बहाने कश्मीर की सौदेबाज़ी करना चाहते थे। भुट्टो के दबाव
के बाद महावत खान ने पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। वहाँ की जनता में
खलबली मच गई, भारत सरकार से मदद माँगी गई। नेहरू यहाँ भी उदार दृष्टिकोण से
काम ले रहे थे। पर पटेल का रुख सख्त था। नेहरू से मतभेद भी हुआ पर भारत ने
सैनिक कार्यवाही की और जूनागढ़ के दो बड़े प्रांत, मांगरोल और बाबरियावाड़, पर
ब्रिगेडियर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में सेना भेजकर कब्ज़ा कर लिया। तब कहीं
जाकर जूनागढ़ का भारत में विलय हो सका। जूनागढ़ के विलय में सरदार पटेल ने
सख्ती और कूटनीति से काम लिया। एक ओर उन्होंने मदद माँगने पर सैनिक भेजे और
दूसरी ओर वी.पी.मैनन को महावत खान को समझाने के लिए भेजा। वे जानते थे कि दबाव
में बातें जल्दी समझ में आती हैं। वी.पी. मेनन ने समझाया कि भारत में विलय
उनके लिए कैसे ज्यादा उचित रहेगा। जनमत संग्रह के सहारे जूनागढ़ 20 फरवरी 1948
को भारतीय संघ का हिस्सा बना। पटेल जनमत संग्रह के लिए राजी ही इसलिए हुए थे
क्योंकि वे जानते थे कि वहाँ की अस्सी प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिंदू है और
उनके राजा से इतर उनकी निष्ठा भारत के साथ है। उन्हें पता था कि जनमत संग्रह
कहाँ कराया जाना चाहिए और कहाँ नहीं। कश्मीर वाले मामले में जवाहरलाल नेहरू
में इसकी बुनियादी रूप से कमी दिखती है। कश्मीर के संबंध में इसी भूल को आज तक
ढोया गया। सरदार पटेल विलय से पहले राजा, जनता और सामरिक दृष्टिकोण का बारीकी
से अध्ययन करने के पश्चात ही अपने वैचारिक अथवा सैनिक औजारों का प्रयोग करते
थे। अर्थात वे हर पुर्जे को खोलने के लिए अलग औजार का प्रयोग करते थे जो उनकी
चुतराई, कौटिल्य सूझबूझ और दूरदर्शिता का परिचायक है। उनकी यह खूबी उन्हें
अपने समकालीन राजनेताओं से विशिष्ट बनाती है।
हैदराबाद का विलय
हैदराबाद काफी समृद्ध राज्य था, इसके निज़ाम के पास अकूत धन संपदा थी। यह
उत्तर में मध्य प्रांत, पश्चिम में बॉम्बे और दक्षिण और पूर्व में मद्रास
प्रांत से संबद्ध था। इसकी 85 फीसदी आबादी हिंदू थी पर सेना और शासन् में
मुसलमानों का दबदबा था। हैदराबाद का निज़ाम दुनिया के अमीर व्यक्तियों में
शामिल था और वह स्वतंत्र राज्य के रूप में रहना चाहता था। जिसके लिए वह यूरोप
से हथियार मंगा रहा था और भारत से लड़ने के लिए तैयारी कर रहा था। नेहरू
हैदराबाद मामले का हल भी शांतिपूर्ण तरीके से चाहते थे। पर वो भूल रहे थे कि-
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं।
रोग लेकिन आ गया जब पास हो।।
तिक्त औषधि के सिवा उपचार क्या।
शमित होगा वह नहीं मिष्ठान्न।।
- दिनकर
हैदराबाद में सब उल्टा चल रहा था, वहाँ रज़ाकारो का एक संगठन बन चुका था जो
निज़ाम को सहायता पहुँचाने के लिए गैर मुस्लिमों पर हमले कर रहा था इसका नेता
कासिम रिज़वी था जो रज़ाकारो का नेता था साथ ही नवाब बहादुर यार जंग जिसने
मुसलमानों का एक संगठन मजलिस-ए-इत्तेहादी-ए-मुस्लमीन बनाया था। उसके मरने के
बाद कासिम रिज़वी इसका भी नेता बन बैठा जो वहाँ उन्माद फैला रहा था। यह एक
अर्धसैनिक बल की तरह काम करता था जिसे रज़ाकार भी कहा जाता था और जिसे निज़ाम
का समर्थन हासिल था इसकी अति तब हो गई जब इस संगठन ने 22 मई को ट्रैन पर हिंदू
लोगो पर हमला बोल दिया। इस घटना से पूरे देश में भारत सरकार की आलोचना होने
लगी कि वह हैदराबाद के संबंध में कुछ ज्यादा ही नर्म रुख दिखा रही है। इस पर
सरदार पटेल ने जनरल करियप्पा से सिर्फ एक सवाल पूछा कि अगर पाकिस्तान की तरफ
से कोई कार्यवाही होती है तो क्या वे किसी भी अतिरिक्त मदद के उन हालातों से
निपट पाएंगे, जनरल करियप्पा ने हाँ कहा। इसके बाद सरदार पटेल ने त्वरित
कार्यवाही करते हुए वहाँ सैनिक भेजे। इस कार्यवाही को लेकर नेहरू से पटेल के
मतभेद भी रहे। पर यह सरदार पटेल की ही दूरदृष्टि थी जिससे आज हैदराबाद में
कश्मीर जैसे हालात नहीं हैं पाँच दिनों तक भारतीय सेना और रज़ाकारो के बीच चले
संघर्ष में 1373 रज़ाकार मारे गए, साथ हैदराबाद स्टेट के भी 807 जवान मारे गए,
भारतीय सेना के भी 66 जवान वीरगति को प्राप्त हुए और 97 घायल हुए। पर विजय भारत
की हुई और हैदराबाद का इस सख्त कार्यवाही के बाद भारत में विलय हो गया। इसे
ऑपरेशन पोलो का नाम दिया गया। हैदराबाद के पूरे मामले को देखें तो वहाँ सैनिक
कार्यवाही अवश्यंभावी हो गई थी वरना हिंदू औरतों का बलात्कार और कत्लेआम किया
जा रहा था पटेल की कूटनीति यह थी कि वे बार बार कहते रहे कि यह पुलिस
कार्यवाही है। वे जानते थे कि सैनिक कार्यवाही कहते ही बाकि देशों के शामिल
होने का खतरा बन सकता था। ऐसे मामलो में सरदार पटेल अधिक सजग थे। जहाँ प्यार
से काम बना उन्होंने बनाया, जहाँ फटकार से बना वहाँ फटकारने में भी गुरेज नहीं
किया। हैदराबाद की कहानी का अंत भी सरदार पटेल ने अपनी शैली में किया।
ध्यातव्य हो कि कासिम को पहले जेल में डाल दिया गया और बाद में पाकिस्तान भेज
दिया गया और जिन मुसलमानों के संगठन एमआईएम ने भारत सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी
थी वही आज एआईएमआईएम के नाम से चुनाव लड़ रहा है जिसे औवेसी भाई चलाते हैं।
कश्मीरः विवादों का दंश
भारत की स्वाधीनता के बाद जम्मू कश्मीर रियासत के डोगरा राजा महाराजा हरिसिंह
ने भारत और पाकिस्तान किसी में भी विलय के लिए राज़ीनामा नहीं दिया था लेकिन
जब पाकिस्तानी कबाईली लड़ाकों ने पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कश्मीर की जनता
पर हमला कर दिया और वहाँ कत्लेआम करना शुरु कर दिया तो वहाँ के शासक हरिसिंह
ने भारत से मदद मांगी। पर सरदार पटेल ने अपने सचिव के माध्यम से साफ कहा कि
पहले भारत में विलय करो। हरिसिंह असमंजस में पड़ गए पर परिस्थितियों को देखते
हुए उसने 26 अक्टूबर को विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए जिसे 27 अक्टूबर को
माउंटबेटन ने स्वीकृति दी। यहाँ तक तो सब ठीक था दिक्कत कहाँ पैदा हुई?
हरिसिंह इस शंका से त्रस्त था कि कहीं भारत की फौज न आई तो उसका क्या होगा।
उसने 26 अक्टूबर की रात अपने अंगरक्षक दीवान सिंह से कहा कि 'मैं सोने जा रहा
हूँ अगर कल सुबह तुम्हें श्रीनगर में भारतीय सैनिक विमानो की आवाज़ सुनाई न दे
तो मुझे गोली मार देना।' इस चिंता को स्वयं उसी ने पैदा किया था अपने आज़ाद
रहने के ख्याल की वजह से। कई कारणों की वजह से आज भी कश्मीर विवाद का हिस्सा
बन गया, इसके मुख्य कारणों में जवाहरलाल नेहरू द्वारा बिना सरदार पटेल की सलाह
के ऑल इंडिया रेडिया पर वहाँ जनमत संग्रह वाली बात कह देना और संयुक्त राष्ट्र
संघ में इस मुद्दे को ले जाना रहा। यह नेहरू की एक बड़ी कूटनीतिक भूल थी वरना
इसका हल भी जूनागढ़ या हैदराबाद की तरह पटेल निकाल ही लेते।
कश्मीर के संबंध में सरदार पटेल की राय ज्यादा ठीक साबित लगती है। नेहरू जहाँ
माउंटबेटन के प्रभाव में काम कर रहे थे वहीं सरदार पटेल अपनी दूरदर्शिता और
कूटनीति से कश्मीर का विलय कराने के पक्ष में थे और वे इसमें काफी हद तक सफल
भी रहे लेकिन जैसे ही जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर जनमत संग्रह की घोषणा की और
माउंटबेटन के कहने पर संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मामले को ले गए। यह विलय
विवाद बन गया जो आज तक चल रहा है। इस बीच पटेल का देहावसान हो गया और
परिस्थितियाँ बिगड़ती चली गई।
सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के सच्चे सपूत, देशभक्त, वाक्चातुर्य, कूटनीतिज्ञ और
दूरदर्शी थे जिनमें भारतीयता का मूल्य एकता उनकी धमनियों में रक्त बन बहता था।
वे लौह पुरुष होने के साथ साथ भारत की एकता के प्रतीक पुरुष भी हैं। भारत
सरकार ने सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने एवं अपने
श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए एक विशालकाय मूर्ति का निर्माण कराया जिसे
स्टैचू ऑफ यूनिटी का नाम दिया गया।